उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
'शिबली'! जहाँ किसी की भी आवाज़-ए-पा नहीं
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किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
ये क्या कि फ़क़त अपनी ही तस्वीर बनाओ
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
हैं ख़्वाब भी और ख़्वाब की ताबीरें भी
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
मेरा ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी रास जिन को आ गया
ज़ख़्म दिल का ख़ूँ-चकाँ ऐसा न था
एहसास में बे-ताबीे-ए-जाँ रख दी है
जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत की आगही देना
गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे