गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
तलवार से क्या दार-ओ-रसन से गुज़रे
फूलों की ललक वो थी कि 'शिबली' हम लोग
हर मार्का-ए-रंज-ओ-मेहन से गुज़रे
Wasi Shah
Javed Akhtar
Rahat Indori
Gulzar
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गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत की आगही देना
ये क्या कि फ़क़त अपनी ही तस्वीर बनाओ
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
हर सुब्ह के चेहरे को निखारा किस ने
हैं ख़्वाब भी और ख़्वाब की ताबीरें भी
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
मेरा ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी रास जिन को आ गया
क्यूँ लग़्ज़िश-ए-पा मेरी मलामत का हदफ़ है