एहसास में बे-ताबीे-ए-जाँ रख दी है
इज़हार में तासीर-ए-बयाँ रख दी है
ख़ल्लाक़-ए-मआ'नी ये करम है तेरा
अल्फ़ाज़ के मुँह में भी ज़बाँ रख दी है
Allama Iqbal
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गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
ज़ख़्म दिल का ख़ूँ-चकाँ ऐसा न था
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
दश्त-दर-दश्त फिरा करता हूँ प्यासा हूँ मैं
वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा