हर सुब्ह के चेहरे को निखारा किस ने
हर शाम के गेसू को सँवारा किस ने
गुम-नामी की चादर में थी लिपटी कब से
हर नक़्श को फ़ितरत के उभारा किस ने
Gulzar
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गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
क्यूँ लग़्ज़िश-ए-पा मेरी मलामत का हदफ़ है
गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
ज़ख़्म दिल का ख़ूँ-चकाँ ऐसा न था
एहसास में बे-ताबीे-ए-जाँ रख दी है
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत की आगही देना
दश्त-दर-दश्त फिरा करता हूँ प्यासा हूँ मैं