क्या गुज़रती है मिरे बाद उस पर
आज मैं उस से बिछड़ कर देखूँ
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जश्न-ए-बहार-ए-नौ है नशेमन की ख़ैर हो
नज़र आने से पहले डर रहा हूँ
क़त्ल हो तो मेरा सा मौत हो तो मेरी सी
न पूछ मंज़र-ए-शाम-ओ-सहर पे क्या गुज़री
नदी के पार उजाला दिखाई देता है
सुब्ह तक मैं सोचता हूँ शाम से
ख़ाली हाथ निकल घर से
बनते हैं फ़रज़ाने लोग
ज़िंदगी की दौड़ में पीछे न था
हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब
मुज़्तरिब हैं मौजें क्यूँ उठ रहे हैं तूफ़ाँ क्यूँ
अगर मस्जिद से वाइज़ आ रहे हैं