रफ़्ता रफ़्ता सब साथी साथ छोड़ आए थे
दश्त-ए-ग़म में काटी है मैं ने ज़िंदगी तन्हा
मेरी मौत का मातम दश्त-ए-ग़म में करता कौन
फूट फूट कर रोई मेरी बे-कसी तन्हा
Allama Iqbal
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सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
दीवानों को अहल-ए-ख़िरद ने चौराहे पर सूली दी है
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
दर्द बढ़ता गया जितने दरमाँ किए प्यास बढ़ती गई जितने आँसू पिए
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
रात तो काली थी लेकिन रात गुज़र कर सुब्ह जो आई
मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
उलझे हुए साँसों की घुटन कैसे दिखाऊँ