सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
वो लोग फिर भी ग़नीमत हैं जो पराए हैं
Allama Iqbal
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Gulzar
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मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
इश्क़ सर-ता-ब-क़दम आतिश-ए-सोज़ाँ है मगर
लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम
उलझे हुए साँसों की घुटन कैसे दिखाऊँ
सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
दर्द बढ़ता गया जितने दरमाँ किए प्यास बढ़ती गई जितने आँसू पिए
क्यूँ हुए क़त्ल हम पर ये इल्ज़ाम है क़त्ल जिस ने किया है वही मुद्दई
थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
ताना-ए-इस्याँ देने वालो एक नज़र इस पर भी डालो
कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ