सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
क़ुसूर ये था कि जीने के ख़्वाब देखे थे
किसी ने रेत के तूफ़ाँ में ला के छोड़ दिया
ये जुर्म था कि वफ़ा के सराब देखे थे
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सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
हमें आख़िरत में 'आमिर' वही उम्र काम आई
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
अक़्ल थक कर लौट आई जादा-ए-आलाम से
ओस का नन्हा सा क़तरा हूँ फूलों में तुल जाऊँगा
सुर्ख़ सितारा
आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
ताना-ए-इस्याँ देने वालो एक नज़र इस पर भी डालो
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
उलझे हुए साँसों की घुटन कैसे दिखाऊँ
बाक़ी ही क्या रहा है तुझे माँगने के बाद
लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम