सहरा सहरा ग़म के बगूले बस्ती बस्ती दर्द की आग
जीने का माहौल नहीं है लेकिन फिर भी जीते हैं
साग़र साग़र ज़हर घुला है क़तरा क़तरा क़ातिल है
ये सब कुछ मालूम है लेकिन प्यास लगी है पीते हैं
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Gulzar
Allama Iqbal
Wasi Shah
Jaun Eliya
Habib Jalib
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1959) Peoples Rate This
सज़ा ये दी है कि आँखों से छीन लीं नींदें
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
रात तो काली थी लेकिन रात गुज़र कर सुब्ह जो आई
हमें आख़िरत में 'आमिर' वही उम्र काम आई
थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम
आप की राह में क्या क्या न सहा था हम ने
ख़्वाब जो बिखर गए
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के