रात तो काली थी लेकिन रात गुज़र कर सुब्ह जो आई
और घटे कम-ताब उजाले और बढ़े ज़ुल्मात के साए
अब मैं सहर के नग़्मे गा कर ख़ुद को कब तक धोके दूँगा
होंट हुए जाते हैं ज़ख़्मी दिल का ये आलम बैठा जाए
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Gulzar
Allama Iqbal
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1403) Peoples Rate This
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
उस के वादों से इतना तो साबित हुआ उस को थोड़ा सा पास-ए-तअल्लुक़ तो है
इश्क़ सर-ता-ब-क़दम आतिश-ए-सोज़ाँ है मगर
दीवानों को अहल-ए-ख़िरद ने चौराहे पर सूली दी है
मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
आप की राह में क्या क्या न सहा था हम ने
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम
सुर्ख़ सितारा