इश्क़ सर-ता-ब-क़दम आतिश-ए-सोज़ाँ है मगर
उस में शोला न शरारा न धुआँ होता है
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लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम
सहरा सहरा ग़म के बगूले बस्ती बस्ती दर्द की आग
रफ़्ता रफ़्ता सब साथी साथ छोड़ आए थे
ये पुर-फ़रेब सितारे ये बिजलियों के चराग़
क्यूँ हुए क़त्ल हम पर ये इल्ज़ाम है क़त्ल जिस ने किया है वही मुद्दई
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
उस के वादों से इतना तो साबित हुआ उस को थोड़ा सा पास-ए-तअल्लुक़ तो है
न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
ख़्वाब जो बिखर गए
हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
इल्तिजा