इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
आफ़तें बरसती हैं दिल सुकून पाता है
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आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
अक़्ल थक कर लौट आई जादा-ए-आलाम से
सुर्ख़ सितारा
मिरी ज़िंदगी का हासिल तिरे ग़म की पासदारी
इल्तिजा
मैं न कहा करता था साक़ी तिश्ना-लबों की आह न ले
ओस का नन्हा सा क़तरा हूँ फूलों में तुल जाऊँगा
कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
ग़म-ए-बेहद में किस को ज़ब्त का मक़्दूर होता है