तुझे मैं ज़िंदगी अपनी समझ रहा था मगर
तिरे बग़ैर बसर मैं ने ज़िंदगी कर ली
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घर से चीख़ें उठ रही थीं और मैं जागा न था
तू ज़मीं पर है कहकशाँ जैसा
हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है
'आरिफ़'-हुसैन धोका सही अपनी ज़िंदगी
दोज़ख़ भी क्या गुमान है जन्नत भी है फ़रेब
बादबाँ को गिला हवाओं से
कैसा मातम कैसा रोना मिट्टी का
ग़रीब-ए-शहर तो फ़ाक़े से मर गया 'आरिफ़'
अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
अपने दरवाज़े पे ख़ुद ही दस्तकें देता है वो