अपने दरवाज़े पे ख़ुद ही दस्तकें देता है वो
अजनबी लहजे में फिर वो पूछता है कौन है
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कैसा मातम कैसा रोना मिट्टी का
अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है
'आरिफ़'-हुसैन धोका सही अपनी ज़िंदगी
दोज़ख़ भी क्या गुमान है जन्नत भी है फ़रेब
घर से चीख़ें उठ रही थीं और मैं जागा न था
बादबाँ को गिला हवाओं से
जो अपनी ख़्वाहिशों में तू ने कुछ कमी कर ली
मुझ को वैसा ख़ुदा मिला बिल्कुल
तुझे मैं ज़िंदगी अपनी समझ रहा था मगर