अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
ये ज़िंदगी भी ख़्वाब है तू ख़्वाब से निकल
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घर से चीख़ें उठ रही थीं और मैं जागा न था
कैसा मातम कैसा रोना मिट्टी का
जो अपनी ख़्वाहिशों में तू ने कुछ कमी कर ली
मुझ को वैसा ख़ुदा मिला बिल्कुल
हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है
तुझे मैं ज़िंदगी अपनी समझ रहा था मगर
जो मेरे गाँव के खेतों में भूक उगने लगी
तू ज़मीं पर है कहकशाँ जैसा
जब भी दुश्मन बन के इस ने वार किया
ग़रीब-ए-शहर तो फ़ाक़े से मर गया 'आरिफ़'