कैसा मातम कैसा रोना मिट्टी का
टूट गया है एक खिलौना मिट्टी का
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जो मेरे गाँव के खेतों में भूक उगने लगी
तुझे मैं ज़िंदगी अपनी समझ रहा था मगर
तू ज़मीं पर है कहकशाँ जैसा
बादबाँ को गिला हवाओं से
अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
अपने दरवाज़े पे ख़ुद ही दस्तकें देता है वो
दोज़ख़ भी क्या गुमान है जन्नत भी है फ़रेब
मुझ को वैसा ख़ुदा मिला बिल्कुल
'आरिफ़'-हुसैन धोका सही अपनी ज़िंदगी
ग़रीब-ए-शहर तो फ़ाक़े से मर गया 'आरिफ़'
जब भी दुश्मन बन के इस ने वार किया