मुझ को वैसा ख़ुदा मिला बिल्कुल
मैं ने 'आरिफ़' किया गुमाँ जैसा
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जो अपनी ख़्वाहिशों में तू ने कुछ कमी कर ली
तुझे मैं ज़िंदगी अपनी समझ रहा था मगर
तू ज़मीं पर है कहकशाँ जैसा
जो मेरे गाँव के खेतों में भूक उगने लगी
'आरिफ़'-हुसैन धोका सही अपनी ज़िंदगी
अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
जब भी दुश्मन बन के इस ने वार किया
कैसा मातम कैसा रोना मिट्टी का
हमें नज़दीक कब दिल की मोहब्बत खींच लाती है
घर से चीख़ें उठ रही थीं और मैं जागा न था
दोज़ख़ भी क्या गुमान है जन्नत भी है फ़रेब