ज़िंदगी और ज़िंदगी की यादगार
पर्दा और पर्दे पे कुछ परछाइयाँ
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Faiz Ahmad Faiz
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करम पर भी होता है धोका सितम का
इश्क़ से लोग मना करते हैं
ये सोचते ही रहे और बहार ख़त्म हुई
आह किस से कहें कि हम क्या थे
फिरते हुए किसी की नज़र देखते रहे
आख़िर-ए-कार यही उज़्र जफ़ा का निकला
अश्क-ए-गुल-रंग निसार-ए-ग़म-ए-जानाना करें
भूले अफ़्साने वफ़ा के याद दिल्वाते हुए
दिल गया बे-क़रारियाँ न गईं
काहे को ऐसे ढीट थे पहले झूटी क़सम जो खाते तुम
इक बात भला पूछें किस तरह मनाओगे
न शरह-ए-शौक़ न तस्कीन जान-ए-ज़ार में है