ज़िंदगी से समझौता आज हो गया कैसे
रोज़ रोज़ तो ऐसे सानेहे नहीं होते
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दुनिया से ख़त्म हो गया इंसान का वजूद
ऐ चारागरो पास तुम्हारे न मिलेगी
तिरे महल में हज़ारों चराग़ जलते हैं
लोग अच्छों को भी किस दिल से बुरा कहते हैं
शिकार अपनी अना का है आज का इंसाँ
पढ़ते थे किताबों में क़यामत का समाँ
हो गई अपनों की ज़ाहिर दुश्मनी अच्छा हुआ
खिलना हर एक फूल का 'असग़र' है मोजज़ा
रौशनी जब से मुझे छोड़ गई
तू ने अब तक जिसे नहीं समझा
कहने आए थे कुछ कहा ही नहीं