शिकार अपनी अना का है आज का इंसाँ
जिसे भी देखिए तन्हा दिखाई देता है
Allama Iqbal
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Wasi Shah
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किसी की चाह में ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है
लोग अच्छों को भी किस दिल से बुरा कहते हैं
मुझ को ग़म का न कभी दर्द का एहसास रहा
हो गई अपनों की ज़ाहिर दुश्मनी अच्छा हुआ
सुनो कुछ दीदा-ए-नम बोलते हैं
खिलना हर एक फूल का 'असग़र' है मोजज़ा
तिरे महल में हज़ारों चराग़ जलते हैं
तू ने अब तक जिसे नहीं समझा
जितना रोना था रो चुके आदम
ऐ चारागरो पास तुम्हारे न मिलेगी
उन के हाथों से मिला था पी लिया