कौन हैं वो जिन्हें आफ़ाक़ की वुसअत कम है
ये समुंदर न ये दरिया न ये सहरा मेरा
Rahat Indori
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Allama Iqbal
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यहीं कहीं कोई आवाज़ दे रहा था मुझे
तुम्हें मनाने का मुझ को ख़याल क्या आए
जो ख़्वाब की दहलीज़ तलक भी नहीं आया
दिल में सौ तीर तराज़ू हुए तब जा के खुला
काम जो उम्र-ए-रवाँ का है उसे करने दे
मैं अपनी प्यास में खोया रहा ख़बर न हुई
दिल की जागीर में मेरा भी कोई हिस्सा रख
दिन भर के झमेलों से बचा लाया था ख़ुद को
ज़ूमिंग
तेरे पहलू में तिरे दिल के क़रीं रहना है
खुल कर तो वो मुझ से कभी मिलता ही नहीं है
दिल अजनबी देस में लगा है