ख़ुश्क रुत में इस जगह हम ने बनाया था मकान
ये नहीं मालूम था ये रास्ता पानी का है
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कहीं कहीं तो ज़मीं आसमाँ से ऊँची है
दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं
तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा
वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से
किसी भी काम में लगता नहीं है दिल मेरा
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है
तुम इस रस्ते में क्यूँ बारूद बोए जा रहे हो
है नींद अभी आँख में पल भर में नहीं है
बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
इंतिहाई हसीन लगती है