किसी भी काम में लगता नहीं है दिल मेरा
बड़े दिनों से तबीअत बुझी बुझी सी है
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अजीब शोर मचाने लगे हैं सन्नाटे
कहाँ तलाश में जाऊँ कि जुस्तुजू तू है
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ
तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना
कुछ वो भी तबीअत का सुखी ऐसा नहीं है
अगर चुभती हुई बातों से डरना पड़ गया तो
देर तक चंद मुख़्तसर बातें
इंतिहाई हसीन लगती है
अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से
मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़