अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से
शायद ऐसे नहीं होता अगर ऐसा करते
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तू मिरे पास जब नहीं होता
माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते
तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा
अगर चुभती हुई बातों से डरना पड़ गया तो
ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
इंतिहाई हसीन लगती है
तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
मिस्र फ़िरऔन की तहवील में आया हुआ है
ये हम-सफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है