ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
साए को जिस्म की जुम्बिश से जुदा देखते हैं
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मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़
अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से
तेज़ इतना ही अगर चलना है तन्हा जाओ तुम
तू मिरे पास जब नहीं होता
मैं इंहिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुँचा
तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
देर तक चंद मुख़्तसर बातें
इंतिहाई हसीन लगती है
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
बनाई है तिरी तस्वीर मैं ने डरते हुए
तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना
वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से