मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़
अब इब्तिदा से नहीं दरमियाँ से होता है
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बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
मैं इंहिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुँचा
तू मिरे पास जब नहीं होता
गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है
एक आँसू में तिरे ग़म का अहाता करते
ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
तुम इस रस्ते में क्यूँ बारूद बोए जा रहे हो
तुम्हारे साथ मिरे मुख़्तलिफ़ मरासिम हैं
कहाँ तलाश में जाऊँ कि जुस्तुजू तू है
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है
वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से
सामने रह कर न होना मसअला मेरा भी है