तुम्हारे साथ मिरे मुख़्तलिफ़ मरासिम हैं
मिरी वफ़ा पे कभी इन्हिसार मत करना
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है नींद अभी आँख में पल भर में नहीं है
कहाँ तलाश में जाऊँ कि जुस्तुजू तू है
एक आँसू में तिरे ग़म का अहाता करते
तू मिरे पास जब नहीं होता
देर तक चंद मुख़्तसर बातें
इंतिहाई हसीन लगती है
है मुस्तक़िल यही एहसास कुछ कमी सी है
हम अपने बाग़ के फूलों को नोच डालते हैं
ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़
नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'