हम अपने बाग़ के फूलों को नोच डालते हैं
जब इख़्तिलाफ़ कोई बाग़बाँ से होता है
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तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'
है मुस्तक़िल यही एहसास कुछ कमी सी है
बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
लोग कहते हैं कि वो शख़्स है ख़ुशबू जैसा
सामने रह कर न होना मसअला मेरा भी है
सीखा न दुआओं में क़नाअत का सलीक़ा
हर तरफ़ हद्द-ए-नज़र तक सिलसिला पानी का है
वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से
किसी भी काम में लगता नहीं है दिल मेरा
अगर चुभती हुई बातों से डरना पड़ गया तो
मैं इंहिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुँचा