सीखा न दुआओं में क़नाअत का सलीक़ा
वो माँग रहा हूँ जो मुक़द्दर में नहीं है
Rahat Indori
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बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
तेज़ इतना ही अगर चलना है तन्हा जाओ तुम
किसी भी काम में लगता नहीं है दिल मेरा
सामने रह कर न होना मसअला मेरा भी है
मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से
ये हम-सफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं
तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना
है मुस्तक़िल यही एहसास कुछ कमी सी है