मैं इंहिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुँचा
तुझे ही भूल गया तुझ को याद करते हुए
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देर तक चंद मुख़्तसर बातें
सीखा न दुआओं में क़नाअत का सलीक़ा
ये हम-सफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं
बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं
तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना
मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ
कहीं कहीं तो ज़मीं आसमाँ से ऊँची है
किसी भी काम में लगता नहीं है दिल मेरा
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से
नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'