वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से
कौन चेहरा मिरी तश्कील में आया हुआ है
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दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं
तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा
अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से
सामने रह कर न होना मसअला मेरा भी है
बदल गया है ज़माना बदल गई दुनिया
नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'
देर तक चंद मुख़्तसर बातें
कहीं कहीं तो ज़मीं आसमाँ से ऊँची है
ख़ुश्क रुत में इस जगह हम ने बनाया था मकान
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ