ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ
ये बेवफ़ाई भी शामिल मिरी वफ़ा में है
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एक आँसू में तिरे ग़म का अहाता करते
कहाँ तलाश में जाऊँ कि जुस्तुजू तू है
बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
कहीं कहीं तो ज़मीं आसमाँ से ऊँची है
मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़
तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
सामने रह कर न होना मसअला मेरा भी है
दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं
तू मिरे पास जब नहीं होता
गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है
होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा