अजीब शोर मचाने लगे हैं सन्नाटे
ये किस तरह की ख़मोशी हर इक सदा में है
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वक़्त बे-वक़्त ये पोशाक मिरी ताक में है
बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने
अगर चुभती हुई बातों से डरना पड़ गया तो
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है
तुम इंतिज़ार के लम्हे शुमार मत करना
बदल गया है ज़माना बदल गई दुनिया
कुछ वो भी तबीअत का सुखी ऐसा नहीं है
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
तुम इस रस्ते में क्यूँ बारूद बोए जा रहे हो
नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'
हम अपने बाग़ के फूलों को नोच डालते हैं
मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़