काफ़िरी इश्क़ का शेवा है मगर तेरे लिए
इस नए दौर में हम फिर से मुसलमाँ होंगे
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बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं!
हर बात यहाँ राज़ बनी जाती है
आईना क्या किस को दिखाता गली गली हैरत बिकती थी
जाने क्यूँ उन से मिलते रहते हैं
मुझे दुश्मन से अपने इश्क़ सा है
टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म
किसी पे कोई भरोसा करे तो कैसे करे
निरवान
जहन्नम
लरज़ लरज़ के न टूटें तो वो सितारे क्या
बदल के रख देंगे ये तसव्वुर कि आदमी का वक़ार क्या है