कहने को बहुत अहल-ए-क़लम आए हैं
हम से मगर इस शहर में कम आए हैं
क्या बात है जचती नहीं कोई शय भी
क्या जानिए क्या सोच के हम आए हैं
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लरज़ लरज़ के न टूटें तो वो सितारे क्या
अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं
क्यूँ अंजुमन-ए-ग़ैर में फ़रियाद करें
बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं
जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा
लहरों का आतिश-फ़िशाँ
दुश्मन-ए-जाँ कोई बना ही नहीं
आईना क्या किस को दिखाता गली गली हैरत बिकती थी
फिर अपनी तमन्नाओं का धागा टूटा
ऐ रूह-ए-अवध तेरी मोहब्बत के निसार
अजीब दिल में मिरे आज इज़्तिराब सा है!
दीमक