ज़रा सी देर भी रुकता तो कुछ पता चलता
वो रंग था कि थी ख़ुशबू सहाब सा क्या था
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हर-दिल-अज़ीज़ वो भी है हम भी हैं ख़ुश-मिज़ाज
किस ने कहा किसी का कहा तुम किया करो
ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी
जीना है ख़ूब औरों की ख़ातिर जिया करो
देता था जो साया वो शजर काट रहा है
पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे
दहशत-ज़दा ज़मीं पर वहशत भरे मकाँ ये
ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
जाने क्या कुछ है आज होने को
तेरी तो 'बिल्क़ीस' निराली ही बातें हैं