तरतीब दे रहा था मैं फ़हरिस्त-ए-दुश्मनान
यारों ने इतनी बात पे ख़ंजर उठा लिया
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तू कुछ तो मिरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे
मौजों के इत्तिहाद का आलम न पूछिए
सब होंगे उस से अपने तआरुफ़ की फ़िक्र में
इक तिश्ना-लब ने बढ़ के जो साग़र उठा लिया
ग़म से नाज़ुक ज़ब्त-ए-ग़म की बात है
जब मेरे रास्ते में कोई मय-कदा पड़ा
जब भी नज़्म-ए-मै-कदा बदला गया
यूँ तिरी तलाश में तेरे ख़स्ता-जाँ चले
डूबने वाले की मय्यत पर लाखों रोने वाले हैं
या रब मिरी हयात से ग़म का असर न जाए
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर