ज़िंदगी में जो इक कमी सी है
ये ज़रा सी कमी बहुत है मियाँ
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आँखों में वो रस जो पत्ती पत्ती धो जाए
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
धीमा धीमा सा नूर जैसे तह-ए-साज़
तू याद आया तिरे जौर-ओ-सितम लेकिन न याद आए
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
जिसे लोग कहते हैं तीरगी वही शब हिजाब-ए-सहर भी है
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
ज़िंदगी दर्द की कहानी है
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है