मेरी क़िस्मत है ये आवारा-ख़िरामी 'साजिद'
दश्त को राह निकलती है न घर आता है
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एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं
इक शम्अ' की सूरत में मंज़ूर किया जाऊँ
किसी ने फ़क़्र से अपने ख़ज़ाने भर लिए लेकिन
क़र्या-ए-हैरत में दिल का मुस्तक़र इक ख़्वाब है
मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है
मिल नहीं पाती ख़ुद अपने-आप से फ़ुर्सत मुझे
लौट जाने की इजाज़त नहीं दूँगा उस को
अगर है इंसान का मुक़द्दर ख़ुद अपनी मिट्टी का रिज़्क़ होना
जहाँ भर में मिरे दिल सा कोई घर हो नहीं सकता
किसी को ज़हर दूँगा और किसी को जाम दूँगा
नहीं अब रोक पाएगी फ़सील-ए-शहर पानी को