हम से आबाद है ये शेर-ओ-सुख़न की महफ़िल
हम तो मर जाएँगे लफ़्ज़ों से किनारा कर के
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वो सब में हम को बार-ए-दिगर देखते रहे
ये उस की मर्ज़ी कि मैं उस का इंतिख़ाब न था
तुम चुप रहे पयाम-ए-मोहब्बत यही तो है
फ़ैसला हिज्र का मंज़ूर भी हो सकता है
वो मिरे शहर में आता है चला जाता है
दश्त में ख़ाक उड़ाते हैं दुआ करते हैं
महफ़िल में लोग चौंक पड़े मेरे नाम पर
तू नहीं है तो तिरे हमनाम से रिश्ता रक्खा
सारी रुस्वाई ज़माने की गवारा कर के
मुस्तक़िल हाथ मिलाते हुए थक जाता हूँ
बहुत दिन तक कोई चेहरा मुझे अच्छा नहीं लगता