दीदा-ए-जौहर से बीना हो गया
कू-ए-क़ातिल में बसेगी नई दुनिया इक और
पोशाक-ए-सियह में रुख़-ए-जानाँ नज़र आया
जवाँ रखती है मय देखे अजब तासीर पानी में
तिरी तलाश से बाक़ी कोई मकाँ न रहा
वो ज़ार हूँ कि सर पे गुलिस्ताँ उठा लिया
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
आलम-ए-हैरत का देखो ये तमाशा एक और
रंग-ए-सोहबत बदलते जाते हैं
हम 'मेहर' मोहब्बत से बहुत तंग हैं अब तो
ज़िक्र-ए-जानाँ कर जो तुझ से हो सके
फ़स्ल-ए-गुल आई तो क्या बे-सर-ओ-सामाँ हैं हम