ऐ शाम-ए-ग़म की गहरी ख़मोशी तुझे सलाम
कानों में एक आई है आवाज़ दूर की
Allama Iqbal
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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सुकून-ए-दिल के लिए और क़रार-ए-जाँ के लिए
रंग-आमेज़ी से पैदा कुछ असर ऐसा हुआ
निय्यत अगर ख़राब हुई है हुज़ूर की
आरास्ता बज़्म-ए-ऐश हुई अब रिंद पिएँगे खुल खुल के
पहुँचो गर इक चाँद पर सौ और आते हैं नज़र
ज़माना देखता है हंस के चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ मेरी
मैं ने अंजाम से पहले न पलट कर देखा
लोग अंदाज़ा लगाएँगे अमल से मेरे
हम तो मंज़िल के तलबगार थे लेकिन मंज़िल
मेरी हस्ती में मिरी ज़ीस्त में शामिल होना
तन को मिट्टी नफ़स को हवा ले गई
क्या कहें क्यूँकर हुआ तूफ़ान में पैदा क़फ़स