लफ़्ज़ों से बना इंसाँ लफ़्ज़ों ही में रहता है
लफ़्ज़ों से सँवरता है लफ़्ज़ों से बिगड़ता है
Anwar Masood
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मैं वो नहीं कि ज़माने से बे-अमल जाऊँ
यादों ने ले लिया मुझे अपने हिसार में
दैर-ओ-हरम में दश्त-ओ-बयाबान-ओ-बाग़ में
रोते रोते मिरे हँसने पे तअज्जुब न करो
दरिया में है सराब अजब इब्तिला में हूँ
करता हूँ एक ख़्वाब के मुबहम नुक़ूश याद
जो चुप लगाऊँ तो सहरा की ख़ामुशी जागे
आज ज़िंदाँ में उसे भी ले गए
तय कर के दिल का ज़ीना वो इक क़तरा ख़ून का
मिरी नज़र में है अंजाम इस तआक़ुब का
इन हज़ारों में और आप, ये क्या?