हर ख़्वाहिश-ओ-अर्ज़-ओ-इल्तिजा से तौबा
हक़ है तो कहाँ है फिर मजाल-ए-बातिल
बा-ईं हमा-सादगी है पुरकारी भी
है शुक्र दुरुस्त और शिकायत ज़ेबा
ये क़ौल किसी बुज़ुर्ग का सच्चा है
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
कछवा और ख़रगोश
पुर-शोर उल्फ़त की निदा है अब भी
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
दुनिया को न तू क़िबला-ए-हाजात समझ