करता हूँ सदा मैं अपनी शानें तब्दील
पन चक्की
दर-अस्ल कहाँ है इख़्तिलाफ़-ए-अहवाल
होती नहीं फ़िक्र से कोई अफ़्ज़ाइश
काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
कछवा और ख़रगोश
हमारी गाय
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
रात
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है