काफ़िर को है बंदगी बुतों की ग़म-ख़्वार
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
दुनिया के लिए हैं सब हमारे धंदे
ये मसअला-ए-दक़ीक़ सुनिए हम से
इंकार न इक़रार न तस्दीक़ न ईजाब
हम आलम-ए-ख़्वाब में हैं या हम हैं ख़्वाब
पन चक्की
जो तेज़ क़दम थे वो गए दूर निकल
क़ौस-ए-क़ुज़ह
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
नसीहत