बुरहान-ओ-दलील ऐन गुमराही है
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
बरसात
अब क़ौम की जो रस्म है सो ऊल-जुलूल
जो साहिब-ए-मक्रमत थे और दानिश-मंद
इंसाँ को चाहिए न हिम्मत हारे
ये क़ौल किसी बुज़ुर्ग का सच्चा है
तेज़ी नहीं मिनजुमला-ए-औसाफ़-ए-कमाल
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
कछवा और ख़रगोश
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
किस तौर से किस तरह से क्यूँ कर पाया