अफ़्सुर्दगी और गर्म-जोशी भी ग़लत
नक़्क़ाश से मुमकिन है कि हो नक़्श ख़िलाफ़
ढूँडा करे कोई लाख क्या मिलता है
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
क़ौस-ए-क़ुज़ह
बरसात
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
दुनिया के लिए हैं सब हमारे धंदे
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
ये मसअला-ए-दक़ीक़ सुनिए हम से
अहवाल से कहा किसी ने ऐ नेक-शिआ'र
जो तेज़ क़दम थे वो गए दूर निकल