काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
इंकार न इक़रार न तस्दीक़ न ईजाब
दुनिया के लिए हैं सब हमारे धंदे
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
सच कहो
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
चौपाए की तरह तू किताबों से न लद
क़ौस-ए-क़ुज़ह
बदला नहीं कोई भेस नाचारी से
अल-हक़ कि नहीं है ग़ैर हरगिज़ मौजूद
एक पौदा और घास
इख़्फ़ा के लिए है इस क़दर जोश-ओ-ख़रोश