बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
मकशूफ़ हुआ कि दीद हैरानी है
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
क़ौस-ए-क़ुज़ह
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
क्या कहते हैं इस में मुफ़्तियान-ए-इस्लाम
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
हक़्क़ा कि बुलंद है मक़ाम-ए-अकबर
या-रब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
पन चक्की